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देवता: उषाः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

ए॒ते त्ये भा॒नवो॑ दर्श॒ताया॑श्चि॒त्रा उ॒षसो॑ अ॒मृता॑स॒ आगु॑: । ज॒नय॑न्तो॒ दैव्या॑नि व्र॒तान्या॑पृ॒णन्तो॑ अ॒न्तरि॑क्षा॒ व्य॑स्थुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ete tye bhānavo darśatāyāś citrā uṣaso amṛtāsa āguḥ | janayanto daivyāni vratāny āpṛṇanto antarikṣā vy asthuḥ ||

पद पाठ

ए॒ते । त्ये । भा॒नवः॑ । द॒र्श॒तायाः॑ । चि॒त्राः । उ॒षसः॑ । अ॒मृता॑सः । आ । अ॒गुः॒ । ज॒नय॑न्तः । दैव्या॑नि । व्र॒तानि । आ॒ऽपृ॒णन्तः॑ । अ॒न्तरि॑क्षा । वि । अ॒स्थुः॒ ॥ ७.७५.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:75» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

अब उषःकाल में जागृतिवाले पुरुष के लिये फल कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (उषसः) प्रातःकाल की उषा के (चित्राः) जो चित्र (दर्शतायाः) दृष्टिगत होते हैं, (एते त्ये) वे सब (भानवः) सूर्य्य की रश्मियों द्वारा (अमृतासः) अमृतभाव को (आ अगुः) भले प्रकार प्राप्त होते हैं और (दैव्यानि) दिव्य भावों को (जनयन्तः) उत्पन्न करते हुए (अन्तरिक्षा वि अस्थुः) एक ही अन्तरिक्ष में बहुत प्रकार से स्थिर होकर (व्रतानि आपृणन्तः) व्रतों को धारण करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - “उषा” सूर्य्य की रश्मियों का एक पुञ्ज है। जब वे रश्मियाँ इकठ्ठी होकर पृथिवीतल पर पड़ती हैं, तब एक प्रकार का अमृतभाव उत्पन्न करती हुई कई प्रकार के व्रत धारण कराती हैं अर्थात् नियमपूर्वक सन्ध्या करनेवाले उषःकाल में सन्ध्या के व्रत को और नियम से हवन करनेवाले हवनव्रत को धारण करते हैं। इसी प्रकार सूर्य्योदय होने पर प्रजाजन नानाप्रकार के व्रत धारण करके अमृतभाव को प्राप्त होते हैं, अत एव मनुष्य का कर्तव्य है कि वह प्रातः उषःकाल में अपने व्रतों को पूर्ण करे, व्रतों का पूर्ण करना ही अमृतभाव को प्राप्त होना है ॥ या यों कहो कि जिस प्रकार विराट् स्वरूप में सूर्य्य-चन्द्रमादि अपने उदय-अस्तरूप व्रतों को नियमपूर्वक पालन करते हैं, इसी प्रकार अमृतभाव को प्राप्त होनेवाले जिज्ञासु को अपने व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना चाहिये। जो उषःकाल में उठकर अपने नियम-व्रतों का पालन करते हैं, वे ही अमृत को प्राप्त होकर सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते हैं, अन्य नहीं ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषसः) प्रातःकालस्योषसः (चित्राः) ये चित्राः (दर्शतायाः) दृष्टिगता भवन्ति (एते त्ये) ते सर्वे (भानवः) सूर्यस्य रश्मिभिः (अमृतासः) अमृतभावं (आ अगुः) साधु प्राप्नुवन्ति तथा च (दैव्यानि) दिव्यभावान् (जनयन्तः) उत्पादयन्तः (अन्तरिक्षा वि अस्थुः) एकस्मिन्नेवान्तरिक्षेऽनेकधा स्थित्वा (व्रतानि आपृणन्तः) व्रतानि धारयन्ति ॥३॥